भारत शासन अधिनियम 1919 और 1935
भारत शासन अधिनियम 1919
- वर्ष 1918 में राज्य सचिव एडविन सेमुअल मांटेग्यू और वायसराय लॉर्ड चेम्सफोर्ड ने संवैधानिक सुधारों की अपनी योजना तैयार की, जिसे मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड (या मोंट-फोर्ड) सुधार के रूप में जाना जाता है, जिसके कारण वर्ष 1919 के भारत शासन अधिनियम को अधिनियमित किया गया।
- वर्ष 1921 में मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों को लागू किया गया।
- इस अधिनियम का एकमात्र उद्देश्य भारतीयों का शासन में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना था।
- अधिनियम ने केंद्र के साथ-साथ प्रांतीय स्तरों पर शासन में सुधारों की शुरुआत की।
अधिनियम की मुख्य विशेषताएं
केंद्र स्तरीय सरकार:–
- ऐसे मामले जो राष्ट्रीय महत्त्व के थे या एक से अधिक प्रांतों से संबंधित थे, केंद्र स्तरीय सरकार द्वारा शासित थे, जैसे: विदेश मामले, रक्षा, राजनीतिक संबंध, सार्वजनिक ऋण, नागरिक और आपराधिक कानून, संचार सेवाएं आदि।
- इस अधिनियम द्वारा केंद्रीय विधायिका को अधिक शक्तिशाली और जवाबदेह बनाया गया।इस अधिनियम ने गवर्नर-जनरल को मुख्य कार्यकारी प्राधिकारी बनाया।वायसराय की कार्यकारी परिषद में आठ सदस्यों को शामिल करने का प्रावधान किया गया जिसमें तीन भारतीय सदस्यों को शामिल करना था।गवर्नर जनरल को अनुदानों में कटौती करने का अधिकार था, वह केंद्रीय विधायिका द्वारा लौटा दिये गए बिलों को प्रमाणित कर सकता था तथा अध्यादेश जारी कर सकता था।द्विसदनीय विधानमंडल: अधिनियम में द्विसदनीय विधायिका की शुरुआत की गई जिसमें निम्न सदन या केंद्रीय विधानसभा और उच्च सदन या राज्य परिषद शामिल थी।नए सुधारों के तहत अब केंद्रीय विधानमंडल के सदस्य को सरकार से प्रश्न पूछने, पूरक प्रश्न करने, स्थगन प्रस्ताव पारित करने तथा बजट के हिस्से पर मतदान करने का अधिकार था लेकिन अभी भी बजट के 75% हिस्से पर मतदान का अधिकार प्राप्त नहीं था।
केंद्र स्तरीय सरकार:-
- विधायिका का गवर्नर जनरल और उसकी कार्यकारी परिषद पर वस्तुतः कोई नियंत्रण नहीं था।निम्न सदन में 145 सदस्य थे, जो या तो मनोनीत थे या अप्रत्यक्ष रूप से प्रांतों से चुने गए थे। इसका कार्यकाल 3 वर्ष था। 41 मनोनीत (26 आधिकारिक और 15 गैर-सरकारी सदस्य) , 104 निर्वाचित (52 जनरल, 30 मुस्लिम, 2 सिख, 20 विशेष)।उच्च सदन में 60 सदस्य थे। इसका कार्यकाल 5 वर्ष का था और इस सदन में केवल पुरुष सदस्य को ही शामिल किया गया था। 26 मनोनीत , 34 निर्वाचित (20 जनरल, 10 मुस्लिम, 3 यूरोपीय और 1 सिख सदस्य)वायसराय को विधायिका को संबोधित करने का अधिकार था।उसे बैठकों को आहूत करने, स्थगित करने या विधानमंडल को निरस्त या खंडित करने का अधिकार प्राप्त रहा।विधायिका का कार्यकाल ३ वर्ष का था, जिसे वायसराय अपने अनुसार बढ़ा सकता था।केंद्र सरकार को प्रांतीय सरकारों पर अप्रतिबंधित नियंत्रण प्राप्त था।केंद्रीय विधायिका को संपूर्ण भारत के लिये, सभी अधिकारियों और आम लोगों हेतु कानून बनाने के लिये अधिकृत किया गया था, चाहे वे भारत में हों या नहीं।किसी विधेयक को पेश करने हेतु गवर्नर जनरल की अनुमति प्राप्त करना आवश्यक था, जैसे- मौजूदा कानून में संशोधन या गवर्नर जनरल के अध्यादेश में संशोधन, विदेशी संबंध और भारतीय राज्यों, सशस्त्र बलों के साथ संबंध के मामले।
- भारतीय विधायिका भारत के संबंध में ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किसी भी कानून को बदल या उलट नहीं सकती थी।
प्रांत स्तरीय सरकार :-
- सार्वजनिक स्वास्थ्य, स्थानीय स्वशासन, शिक्षा, सामान्य प्रशासन, चिकित्सा सुविधाएंँ, भूमि-राजस्व, जल आपूर्ति, अकाल राहत, कानून और व्यवस्था, कृषि आदि।
- इस अधिनियम ने प्रांतीय स्तर पर कार्यपालिका हेतु द्वैध शासन प्रणाली (दो व्यक्तियों/पार्टियों का शासन) की शुरुआत की।
- द्वैध शासन को आठ प्रांतों में लागू किया गया था जिसमें असम, बंगाल, बिहार और उड़ीसा, मध्य प्रांत, संयुक्त प्रांत, बॉम्बे, मद्रास और पंजाब प्रांत शामिल थे।
- द्वैध शासन व्यवस्था के तहत प्रांतीय सरकारों को अधिक अधिकार प्रदान किये गए थे।
- गवर्नर प्रांत का कार्यकारी प्रमुख था।
विषयों का विभाजन:
विषयों को दो सूचियों में विभाजित किया गया था: ‘आरक्षित’ और ‘स्थानांतरित’।
- आरक्षित सूची में शामिल विषयों का प्रशासन गवर्नर द्वारा नौकरशाहों की कार्यकारी परिषद के माध्यम से किया जाना था।
- इसमें कानून और व्यवस्था, वित्त, भू-राजस्व, सिंचाई आदि जैसे विषय शामिल थे।
- सभी महत्त्वपूर्ण विषय को प्रांतीय कार्यकारिणी के आरक्षित विषयों में शामिल किया गया।
- हस्तांतरित विषयों को विधान परिषद के निर्वाचित सदस्यों में से मनोनीत मंत्रियों द्वारा प्रशासित किया जाना था।
- इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, स्थानीय सरकार, उद्योग, कृषि, उत्पाद शुल्क आदि विषय शामिल थे।
- प्रांत में संवैधानिक तंत्र के विफल होने की स्थिति में गवर्नर हस्तांतरित विषयों का प्रशासन भी अपने हाथ में ले सकता था।
भारत के राज्य सचिव और गवर्नर जनरल आरक्षित विषयों के संबंध में हस्तक्षेप कर सकते थे,
जबकि स्थानांतरित विषयों के संबंध में उन्हें हस्तक्षेप करने का अधिकार प्राप्त नहीं था।
विधानमंडल में सुधार :-
- प्रांतीय विधान परिषदों का और अधिक विस्तार किया गया तथा 70% सदस्यों का चुनाव किया जाना था।
- सांप्रदायिक (Communal) और वर्गीय मतदाताओं (class electorates) की व्यवस्था को और मज़बूत किया गया।
- महिलाओं को भी वोट देने का अधिकार दिया गया।
- विधान परिषदें बजट को अस्वीकार कर सकती थी लेकिन यदि आवश्यक हो तो गवर्नर इसे पुनः बहाल कर सकता था।
- विधायकों (Legislators) को बोलने की स्वतंत्रता थी।
- गवर्नर जिन्हें वह आवश्यक समझे, मंत्रियों को किसी भी आधार पर बर्खास्त कर सकता था।
- साथ ही उसने वित्त पर पूर्ण नियंत्रण बनाए रखा।
- विधान परिषदें कानून निर्माण की प्रक्रिया शुरू कर सकती थीं लेकिन उसके लिये गवर्नर की सहमति की आवश्यकता थी।
- गवर्नर को विधेयक पर वीटो शक्ति का अधिकार था तथा वह अध्यादेश जारी कर सकता था।
अधिनियम का महत्त्व :–
- भारतीयों में जागृति: इस अधिनियम के माध्यम से भारतीयों को प्रशासन के बारे में गुप्त सूचना मिली और वे अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक हुए।
- इससे भारतीयों में राष्ट्रवाद और जागृति की भावना पैदा हुई और वे स्वराज के लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में आगे बढ़े।
- मतदान के अधिकारों का विस्तार: भारत में चुनाव क्षेत्रों का विस्तार हुआ जिससे लोगों में मतदान के महत्त्व के प्रति समझ बढ़ी।
- प्रांतों में स्वशासन: इस अधिनियम ने भारत में प्रांतीय स्वशासन की शुरुआत की।
- इस अधिनियम ने लोगों को प्रशासन करने का अधिकार प्रदान किया जिससे सरकार पर प्रशासनिक दबाव बहुत कम हो गया।
- इसने भारतीयों को प्रांतीय प्रशासन में ज़िम्मेदारियों का निर्वहन करने हेतु तैयार किया।
अधिनियम के परिणाम:–
- कॉन्ग्रेस ने अगस्त 1918 में हसन इमाम की अध्यक्षता में बॉम्बे में एक विशेष सत्र में बैठक की और सुधारों को “निराशाजनक” एवं “असंतोषजनक” घोषित किया तथा इसके स्थान पर प्रभावी स्वशासन की मांँग की।
- बाल गंगाधर तिलक द्वारा मोंटफोर्ड सुधारों को “अयोग्य और निराशाजनक – एक धूप रहित सुबह” कहा गया था।
- एनी बेसेंट ने सुधारों को “इंग्लैंड के प्रस्ताव के योग्य और भारत को स्वीकार करने के लिये अयोग्य” पाया।
- सुरेंद्रनाथ बनर्जी (के नेतृत्व में वयोवृद्ध कॉन्ग्रेसी नेता सरकारी प्रस्तावों को स्वीकार करने के पक्ष में थे।
- अधिनियम ने भारतीयों और अंग्रेज़ों दोनों में सत्ता के लिये संघर्ष को प्रोत्साहित किया।
- परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में सांप्रदायिक दंगे हुए जो वर्ष 1922 से 1927 तक जारी रहे।वर्ष 1923 में स्वराज पार्टी (Swaraj Party) की स्थापना हुई तथा उसने चुनावों में मद्रास को छोड़कर पर्याप्त संख्या में सीटें जीती।जबकि पार्टी बंबई और मध्य प्रांतों में मंत्रियों के वेतन के साथ अन्य वस्तुओं की आपूर्ति को अवरुद्ध करने में सफल रही।
परिणाम:-
- इस प्रकार दोनों प्रांतों के गवर्नरों को द्वैध शासन को समाप्त करने हेतु मजबूर होना पड़ा और स्थानांतरित विषयों को अपने नियंत्रण में ले लिया गया।
मार्च 1919 में रॉलेट एक्ट (Rowlatt Act) पारित किया, हालांकि केंद्रीय विधान परिषद के प्रत्येक भारतीय सदस्य ने इसका विरोध किया।
- इस अधिनियम ने सरकार को राजनीतिक गतिविधियों को दबाने के लिये अधिकार प्रदान किये और दो साल तक बिना किसी मुकदमे के राजनीतिक कैदियों को हिरासत में रखने की अनुमति दी।।
- इस अधिनियम ने सरकार को बंदी प्रत्यक्षीकरण के अधिकार को निलंबित करने का अधिकार प्रदान किया जिसने ब्रिटेन में नागरिक स्वतंत्रता की नींव रखी।
1935 का भारतीय सरकार/शासन अधिनियम :-
1935 का भारतीय सरकार/शासन अधिनियम भारतीय संविधान का एक प्रमुख स्त्रोत है। भारत के वर्तमान संविधान की विषय-सामग्री और भाषा पर इस अधिनियम का प्रभाव स्पष्टत: देखा जा सकता है। संघ और राज्यों के बीच शक्ति-विभाजन और राष्ट्रपति के संकटकालीन अधिकारों के सम्बन्ध में व्यवस्था 1935 के अधिनियम जैसी ही है।
- एक अखिल भारतीय संघ की स्थापना की जाएगी जिसमें ब्रिटिश भारत के प्रान्तों के अतिरिक्त देशी नरेशों के राज्य भी सम्मिलित होंगे।
- प्रान्तों को स्वशासन का अधिकार दिया जाएगा।
शासन के समस्त विषयों को तीन भागों में बाँटा गया-
- संघीय विषय, जो केंद्र के अधीन थे;
- प्रांतीय विषय, जो पूर्णतः प्रान्तों के अधीन थे; और
- समवर्ती विषय, जो केंद्र और प्रांत के अधीन थे।
- परन्तु यह निश्चित किया गया कि केंद्र और प्रान्तों में विरोध होने पर केंद्र का ही कानून मान्य होगा। प्रांतीय विषयों में प्रान्तों को स्वशासन का अधिकार था और प्रान्तों में उत्तरदायी शासन की स्थापना की गई थी अर्थात् गवर्नर व्यवस्थापिका-सभा के प्रति उत्तरदायी भारतीय मंत्रियों की सलाह से कार्य करेंगे। इसी कारण से यह कहा जाता है कि इस कानून द्वारा प्रांतीय स्वशासन की स्थापना की गई।
- केंद्र या राज्य सरकार के लिए द्वैध शासन की व्यवस्था की गई जैसे 1919 ई। के कानून के अंतर्गत प्रान्तों में की गई थी।
- भारतीय सरकार अधिनियम, 1935 के अंतर्गत एक संघीय न्यायालय की स्थापना की गई।
- एक केन्द्रीय बैंक (Reserve Bank of India) की स्थापना की गई।
- सिंध और उड़ीसा के दो नवीन प्रांत बनाए गए और उत्तर-पश्चिमी सीमा-प्रांत को गवर्नर के अधीन रखा गया।
- गवर्नर-जनरल और गवर्नरों को कुछ विशेष दायित्व (special responsibilities), जैसे भारत में अंग्रेजी राज्य की सुरक्षा, शान्ति, ब्रिटिश सम्राट और देशी नरेशों के सम्मान की रक्षा, विदेशी आक्रमण से रक्षा आदि प्रदान किए गए।
- इस कानून के द्वारा भी निर्वाचन में साम्प्रदायिकता प्रणाली का ही उपयोग किया गया पर परन्तु केंद्र और प्रांत दोनों के लिए मत देने की योग्यता में कमी कर दी गई जिसके परिणामस्वरूप मतदाताओं की संख्या बढ़कर 13% हो गई, जबकि 1919 ई। के कानून के अंतर्गत यह केवल 3% थी।
1935 का भारत शासन अधिनियम के मुख्य उपबंध :-
1935 का भारत शासन अधिनियम बहुत लम्बा और जटिल था। अधिनियम में 451 धाराएं और 15 परिशिष्ट थे। अधिनियम के इतने लम्बे और पेचीदा होने का मूल कारण यह था कि एक ओर तो भारत में बढ़ती हुई राष्ट्रीयता के कारण भारत के लोगों को सत्ता का पर्याप्त हस्तांतरण आवश्यक हो गया था, दूसरी ओर ब्रिटिश सरकार शक्ति हस्तांतरण के साथ-साथ अपने हितों की रक्षा की पूरी व्यवस्था कर लेना चाहती थी। इस अधिनियम के लिए निम्नलिखित मसविदों की सहायता ली गयी –
- साइमन आयोग रिपोर्ट
- सर्वदलीय कांग्रेस (नेहरू समिति) रिपोर्ट एवं जिन्ना का 14 सूत्र
- तीनों गोलमेज कांग्रेस में हुए वाद-विवाद
- श्वेत पत्र
- संयुक्त प्रवर समिति रिपोर्ट
- लोथियन रिपोर्ट जिसमें चुनाव संबंधी प्रावधानों का विवरण था।
इस अधिनियम के तीन प्रमुख अंग हैं –
- अखिल भारतीय संघ
- संरक्षणों सहित उत्तरदायी सरकार
- भिन्न-भिन्न साप्रंदायिक तथा अन्य वर्गों के लिए पृथक प्रतिनिधित्व
- जवाहर लाल नेहरू ने इस अधिनियम के सम्बन्ध में कहा था कि “यह अधिनियम दासता का घोषणा पत्र है। ”
- इस अधिनियम ने केंद्र पर द्वैध शासन थोप दिया। जिस द्वैध शासन को साइमन कमीशन ने दोषपूर्ण बताया था, उसी व्यवस्था को केंद्र पर थोप दिया गया।