पारिस्थितिकीय तंत्र  

पारिस्थितिकीय तंत्र  

पारिस्थितिकीय तंत्र  

पारिस्थितिकी वह विज्ञान है जिसके अन्तर्गत समस्त जीवों तथा भौतिक पर्यावरण के मध्य उनके अन्तर्संबंधों का अध्ययन किया जाता है। यद्यपि ‘Oecology’ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम अर्नस्ट हैकेल ने 1869 में किया था। हैकेल द्वारा निर्मित ‘Oecology’ नामावली का विन्यास ग्रीक भाषा के दो शब्दों से हुआ है, जिसमें Oikos (रहने का स्थान) तथा logos (अध्ययन) है। आगे चलकर Oecology को Ecology कहा जाने लगा।

वर्तमान समय में पारिस्थितिकी की संकल्पना को व्यापक रूप दे दिया गया है। अब पारिस्थितिकी के अन्तर्गत न केवल पौधों एवं जन्तुओं तथा उनके पर्यावरण के बीच अंत संबंध का ही अध्ययन किया जाता है वरन् मानव, समाज और उसके भौतिक पर्यावरण की अंतक्रियाओं का भी अध्ययन किया जाता है।

पारिस्थितिकी तंत्र :-

‘पारिस्थितिकी तंत्र’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग ए.जी. टान्सले द्वारा 1935 में किया गया था। सामान्य रूप से जीवमंडल के सभी संघटकों के समूह, जो पारस्परिक क्रिया में सम्मिलित होते हैं, को पारिस्थितिकी तंत्र कहा जाता है। यह पारितंत्र प्रकृति की क्रियात्मक इकाई है जिसमें इसके जैविक तथा अजैविक घटकों के बीच होने वाली जटिल क्रियाएँ सम्मिलित होती हैं।

पारितंत्र एक ऐसी इकाई होती है जिसके भीतर वे सभी जैविक समुदाय आ जाते हैं जो एक निर्दिष्ट क्षेत्र के भीतर एक साथ कार्य करते हैं तथा भौतिक पर्यावरण (अजैविक घटक) के साथ इस तरह परस्पर क्रिया करते हैं कि ऊर्जा का प्रवाह स्पष्टतः निश्चित जैविक संरचनाओं

के भीतर होता है और जिसमें विभिन्न तत्वों का सजीव तथा निर्जीव अंशों में चक्रण होता रहता है।

पारिस्थितिकी तंत्र की विशेषताएँ :-

  • यह संरचित एवं सुसंगठित तंत्र होता है।
  • पारिस्थितिकी तंत्र प्राकृतिक संसाधन तंत्र होते हैं।
  • पारिस्थितिकी तंत्र की उत्पादकता उसमें ऊर्जा की सुलभता पर निर्भर करती है।
  • पारिस्थितिकी तंत्र के विभिन्न प्रकार ऊर्जा द्वारा संचालित होते हैं।
  • पारिस्थितिकी तंत्र एक खुला तंत्र है जिसमें पदार्थों तथा ऊर्जा का सतत् निवेश (Input) तथा बहिर्गमन (Output) होता है।

पारिस्थितिकी तंत्र के घटक :-

अजैविक घटक :-

पारितंत्र के अजैविक घटक काफी महत्त्वपूर्ण होते हैं। अजैविक घटकों में मृदा, जल, वायु तथा प्रकाश-ऊर्जा आदि आते हैं। इनमें बहुसंख्यक अकार्बनिक पदार्थ, जैसे- ऑक्सीजन, नाइट्रोजन आदि तथा रासायनिक एवं भौतिकीय प्रक्रियाएँ (ज्वालामुखी, भूकम्प, बाढ़, दावानल, जलवायु तथा मौसमी दशाएँ) भी शामिल हैं।

प्रत्येक अजैविक कारक का अलग-अलग अध्ययन किया जा सकता है मगर प्रत्येक कारक स्वयं भी अन्य कारकों से प्रभावित होता है और बदले में उन कारकों को भी प्रभावित करता है। कोई जीव अपने पर्यावरण में कहाँ-कितनी अच्छी तरह रह पाता है इसके महत्त्वपूर्ण निर्धारक अजैविक कारक ही होते हैं, इसलिये इसे सीमाकारी कारक भी कहते हैं।

जैविक घटक :-

जैविक घटक के अंतर्गत उत्पादक, उपभोक्ता तथा अपघटक आते हैं।

उत्पादक स्वपोषित होते हैं, जो कि साधारणतया क्लोरोफिल युक्त जीव होते हैं और अकार्बनिक अजैविक पदार्थों को सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में संचित कर अपना भोजन बनाते हैं।

जैविक घटकों को मुख्यत: तीन प्रकार से विभाजित किया जा सकता है-

  1. उत्पादक
  2. उपभोक्ता
  3. अपघटक

उत्पादक या स्वपोषी संघटक :-

इसके अंतर्गत हरे पेड़-पौधे, कुछ खास जीवाणु एवं शैवाल आते हैं, जो सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में सरल अजैविक पदार्थों से अपना भोजन बना सकते हैं, अर्थात् ऐसे जीव, जो स्वयं अपना भोजन बना सकते हैं स्वपोषी अथवा प्राथमिक उत्पादक कहलाते हैं।

स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र में उत्पादक प्रायः जड्युक्त पौधे (शाक, झाड़ी तथा वृक्ष), जबकि गहरे जलीय पारिस्थितिकी तंत्र में पादपप्लवक नामक प्लवक पौधे प्रमुख उत्पादक होते हैं। जब पर्यावरणीय स्थिति अनुकूलतम रहती है तो पादपप्लवक इतना भोज्य पदार्थ उत्पादित करते हैं, जितना कि प्रति इकाई क्षेत्रफल (भूमि या जलीय सतह) में बड़ी झाड़ियों या बड़े वृक्षों द्वारा तैयार होता है।

उपभोक्ता :-

    प्राथमिक उपभोक्ताः–  वह उपभोक्ता जो अपने भोजन के लिये पौधों पर निर्भर रहता है, प्राथमिक उपभोक्ता (शाकभक्षी) कहलाता है। जैसे चरने वाले पशु- बकरी, खरगोश, ऊँट आदि।

    द्वितीयक उपभोक्ताः–  वह उपभोक्ता जो पोषण के लिये शाकभक्षी या अन्य प्राणियों पर निर्भर रहता है। जैसे-साँप, भेड़िया आदि।

    तृतीयक उपभोक्ता (शीर्ष मांसभक्षी):–  इसमें वे उपभोक्ता आते हैं जो प्राथमिक एवं द्वितीयक उपभोक्ताओं को अपना आहार बनाते हैं, जैसे- बाज, बड़ी शार्क, शेर, बाघ आदि।

अपघटक या मृतजीवी :-

इसमें मुख्यत: बैक्टीरिया व कवक आते हैं। ये पोषण के लिये मृत कार्बनिक पदार्थ या अपरद पर निर्भर रहते हैं।

उपभोक्ता की तरह अपघटक अपना भोजन निगलते नहीं हैं बल्कि वे अपने शरीर से मृत या मृतप्राय पौधों तथा पशुओं के अवशेषों पर विभिन्न प्रकार के एंजाइम उत्सर्जित करते हैं। इन मृत अवशेषों के बाह्य श्वसनीय पाचन से सामान्य अकार्बनिक पदार्थों का उत्सर्जन होता है, जिनका अपघटकों के द्वारा उपभोग किया जाता है ।

पारिस्थितिकी तंत्र से संबंधित नियम :-

    पारिस्थितिकी तंत्र के संदर्भ में पारिस्थितिकी के निम्न नियम व संकल्पनाओं का उल्लेख किया जा सकता है –

   तंत्र पारिस्थितिकीय अध्ययन की आधारभूत इकाई है। इसमें अजैविक व जैविक दोनों घटक होते हैं।

    संपूर्ण जैवमंडल एक जटिल पारिस्थितिकी तंत्र है।

    पारिस्थितिकी तंत्र का एक महत्त्वपूर्ण नियम ‘एकरूपतावाद का नियम’ है अर्थात् भौतिक और जैविक प्रक्रम आज भी वही हैं जो कभी अतीत में थे और भविष्य में भी वही रहेंगे, जो वर्तमान में हैं। अंतर केवल उनके परिमाण, तीव्रता, आवृत्ति या दर  का होता है।

    पारिस्थितिकी तंत्र सौर विकिरण के रूप में ऊर्जा के निवेश से संचालित एवं कार्यशील होता है। विभिन्न पोषण स्तरों में सौर ऊर्जा विभिन्न रूपों में प्रवाहित होती है और प्राणियों द्वारा ऊष्मा के निष्कासन के फलस्वरूप शून्य में चली जाती है। अर्थात् उसी ऊर्जा का पुनः उपयोग नहीं हो सकता। इस तरह ऊर्जा का प्रवाह एकदिशीय होता है।

    बढ़ते पोषण स्तरों में ऊर्जा का प्रगामी क्षय होता है। प्रत्येक पोषण स्तर के जीवों को अपने पिछले पोषण स्तर के जीवों से 10 प्रतिशत ऊर्जा की ही प्राप्ति हो पाती है। इसे ऊर्जा स्थानांतरण का 10 प्रतिशत का नियम भी कहते हैं।

   नियम :-

बढ़ते पोषण स्तरों में श्वसन द्वारा ऊर्जा का सापेक्षिक ह्रास बढ़ता चला जाता है। अर्थात् उच्च पोषण स्तरों के जीवधारियों में श्वसन के द्वारा ऊष्मा ह्रास अपेक्षाकृत अधिक होता है।

    किसी निश्चित पोषण स्तर के जीवों और ऊर्जा के मौलिक स्रोतों (पौधों) के बीच जितनी दूरी बढ़ती है उन जीवों की एक ही पोषण स्तर पर आहार के लिये निर्भरता में उतनी ही कमी आती है। यही कारण है कि आहार श्रृंखला  छोटी और आहार जाल बड़ा और जटिल होता है।

    सूर्यातप पारितंत्र की उत्पादकता को प्रभावित करने वाला सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारक है। सूर्यातप में कमी पारितंत्र की उत्पादकता और जैव विविधता दोनों में कमी लाती है। यही कारण है कि निम्न अक्षांशों से उच्च अक्षांशों की ओर जाने पर सामान्यतः पारितंत्र की उत्पादकता और जैव विविधता में कमी आती है।

    इसके अलावा पारितंत्र की उत्पादकता को कुछ अजैविक कारक यथा- वर्षा की मात्रा, मिट्टी की प्रकृति, जलवायु तथा रासायनिक कारकों में पोषक तत्वों की उपलब्धता प्रभावित करती है।

    पारितंत्रीय स्थिरता समस्थिति क्रियाविधि द्वारा बनी रहती है। अर्थात् पारितंत्र में होने वाला कोई भी अवांछित परिवर्तन प्रकृति द्वारा स्वतः समायोजित कर लिया जाता है।

    प्राकृतिक पारितंत्र जब किसी अवांछित प्राकृतिक या मानवीय गतिविधियों को समायोजित नहीं कर पाता है तब पारितंत्रीय अस्थिरता उत्पन्न होती है।

    पारिस्थितिकी तंत्र के अध्ययन का अंतिम उद्देश्य जैव विविधता की समृद्धि, पारितंत्र की स्थिरता, पारितंत्रीय संसाधनों का संरक्षण एवं परिरक्षण है।

पारिस्थितिकी तंत्र के प्रकार :-

1. प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र :-

इसका समस्त संचालन प्रकृति से होता है और जैविक घटकों का उद्भव, विकास, विनाश, स्थानीय या क्षेत्रीय आधार पर प्राकृतिक पर्यावरण के तत्वों से नियंत्रित होता है। जहाँ जैव उद्भव एवं विकास एवं समस्त चक्र (पोषण, कार्बन, जैव, रसायन चक्र आदि) और अनुक्रमण बिना किसी मानवीय हस्तक्षेप के चलते रहते है, उस इकाई को प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र कहते है।

पर्यावरण विशेषताओं के आधार पर इसे निम्नलिखित उप विभागों मे विभाजित किया जा सकता है–

(अ)  स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र या पार्थिक पारिस्थितिकी तंत्र

  • वन पारिस्थितिकी तंत्र,
  • मरूस्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र,
  • घास पारिस्थितिकी तंत्र ।

(ब) जलीय पारिस्थितिकी तंत्र

  • खारा जल पारिस्थितिकी तंत्र अथवा सागरीय पारिस्थितिकी तंत्र
  • स्वच्छ जल पारिस्थितिकी तंत्र अथवा झील, नदी, तालाब पारिस्थितिकी तंत्र।

2. कृत्रिम या मानव निर्मित पारिस्थितिकी तंत्र

समस्त जैव जगत मे मनुष्य सर्वाधिक बुद्धिमान प्राणी है। इसलिए उच्च तकनीकी एवं नवीन अनुसंधान कर वह प्राकृतिक साधनों का शोषण करता है। वह ऊर्जा और उष्मा पाने के लिए वन काटता है। मिट्टी मे रासायनिक उर्वरकों का उपयोग करता है। कीटाणु एवं खरपतवार-नाशक विषाक्त रसायनों का प्रयोग करता है। वृहद् यंत्रों के उपयोग से कृषि, उद्योग, खनिज, परिवहन एवं व्यापार एवं वाणिज्य के क्षेत्रों मे उसने इतना परिवर्तन कर दिया है कि कृत्रिम पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण हो गया है।

अतः आर्थिक विकास के आधार पर उसे 5 उप विभागों मे विभाजित किया जाता है–

(अ) जनजातीय पारिस्थितिकी तंत्र,

(ब) उपकृषित पारिस्थितिकी तंत्र,

(स) उच्चतम तकनीकी युक्त कृषि पारिस्थितिकी तंत्र,

(द) वाणिज्यिक एवं व्यापारिक पारिस्थितिकी तंत्र,

(ई) औद्योगिक एवं नगरीय पारिस्थितिकी तंत्र आदि।

स्थलीय परिस्थिकीय तंत्र :-

वन पारिस्थितिकी तंत्र :-

इसके लिए तापमान, मृदा और आर्द्रता अनिवार्य तत्त्व है, वनों में वनस्पति का वितरण उस क्षेत्र की जलवायु , मृदा पर निर्भर करता है।

सामान्यत: इसे तीन भागों में बाँटा जा सकता है –

  • उष्ण-कटिबंधीय वन
  • शीतोष्ण कटिबंधीय वन
  • शंकुधारी वन (टैगा वन)
  • टुंड्रा प्रदेश

(1) उष्ण-कटिबंधीय वन

इन वनों को मुख्यत: दो भागों में विभाजित किया जा सकता है –

उष्ण-कटिबंधीय सदाबहार वन

    विषुवत रेखा के निकट वह क्षेत्र जहाँ वर्ष भर आर्द्रता व तापमान काफी उच्च होते है तथा औसत वार्षिक वर्षा 200 cm से अधिक होती है, उष्ण कटिबंधीय सदाबहार वन कहलाते है ।

    विषुवत रेखीय वनों में अत्यधिक वर्षा के कारण निक्षालन की प्रक्रिया से पोषक तत्त्व मृदा के निचले भाग में चले जाते है, अत: कृषि की दृष्टि से यह क्षेत्र उपजाऊ नहीं होते है, तथा यहाँ अम्लीय मृदा पाई जाती है ।

    इन क्षेत्रों में वृक्ष व झाड़ियों के तीन स्तर पाएँ जाते है, जिस कारण सूर्य की रोशनी जमीन तक नहीं पहुँच पाती है । इसमें सबसे ऊपरी स्तर पर महोगनी , रोजवुड , सैंडल वुड तथा मध्य स्तर पर अधिपादप (Epiphytes) और सबसे निचले स्तर पर लताएँ (Lianas) कहते है ।

    इन वृक्षों का विस्तार अमेज़न बेसिन (Amazon Basin), कांगो बेसिन (Cango Basin), अंडमान एवं निकोबार, जावा व सुमात्रा आदि क्षेत्रों में पाएँ जाते है।

उष्ण-कटिबंधीय पर्णपाती या मानसूनी वन :-

    वे वन क्षेत्र जहाँ औसत वार्षिक वर्षा 70-200 cm के मध्य होती है, मानसूनी या पर्णपाती वन कहते है। इन वनों के पौधें शुष्क या ग्रीष्म ऋतु में अपनी पत्तियां गिरा देते है ताकि वाष्पोत्सर्जन कम हो।

    इन वनों के प्रमुख वृक्ष – सागवान , शीशम , शाल बांस आदि प्रमुख है। जो मुख्यत: दक्षिण – पूर्व एशिया में पाएँ जाते है।

2.मध्य अक्षांशीय या शीतोष्ण कटिबंधीय वन  –

इन वनों को मुख्यत: तीन भागों में विभाजित किया जाता है-

  • मध्य अक्षांशीय सदाबहार वन
  • मध्य अक्षांशीय पर्णपाती वन
  • भूमध्य सागरीय वन

    मध्य अक्षांशीय सदाबहार वन

        उपोष्ण प्रदेशों में महाद्वीपों के पूर्वी तटीय भागों के वर्षा वनों को इसके अंतर्गत रखा जाता है, इन वनों के वृक्षों की पत्तियां चौड़ी होती है। जैसे – लौरेल , युकलिप्टुस आदि ।

        यह वन मुख्यत: दक्षिण चीन, जापान, दक्षिण ब्राज़ील, दक्षिण एशिया आदि क्षेत्रों में पाएँ जाते है ।

 मध्य अक्षांशी पर्णपाती  वन

        ये वन उष्ण-कटिबंधीय पर्णपाती वनों के विपरीत शीत ऋतु (winter season) में ठंड से बचने के लिए  अपनी पत्तियां गिरा देते है तथा इन वनों में podzol मृदा पाई जाती है, इन वनों के प्रमुख वृक्ष – वॉलनट, मेपल, चेस्टनैट आदि है ।

   भूमध्य सागरीय वन 

        मध्य अक्षांक्षों में महाद्वीपों के पश्चिमी भागों में ये वन पाएँ जाते है, इन क्षेत्रों में ग्रीष्म ऋतु शुष्क व गर्म तथा शीत ऋतु आर्द्र व ठंडी होती है, तथा वर्षा शीत ऋतु में होती है। इन वनों के प्रमुख वृक्ष – जैतून , पाइन , नींबू , नाशपाती व नारंगी आदि है ।

(3) शंकुधरी वन (टैगा वन)

इस प्रकार के वन मुख्यत: पर्वतीय क्षेत्रों में आर्कटिक वृत (66.5०) के चारों ओर एशिया, यूरोप व अमेरिका महाद्वीपों में पाएँ जाते है। इन वनों के वृक्ष मुख्यत: कोणधारी होती है, अर्थात् इन वनों के वृक्षों की पत्तियां नुकीली होती है ताकि वाष्पोत्सर्जन कम हो तथा पत्तियों पर बर्फ न रुके।

इन क्षेत्रों में अम्लीय पोद्जोल (Podzol) मृदा पाई जाति है, जो खनिजों से रहित होती है ।

टुंड्रा प्रदेश :-

टुंड्रा का अर्थ है – बंज़र भूमि , यह वन विश्व के उन क्षेत्रों में पाएँ जाते है, जहाँ पर्यावरणीय दशाएँ अत्यंत जटिल होती है। टुंड्रा वन दो प्रकार के होते है –

  • आर्कटिक टुंड्रा
  • अल्पाइन टुंड्रा

मरुस्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र :-

इस पारितंत्र में लंबे समय तक आर्द्रता की कमी रहती है, वायु में नमी की मात्रा तथा तापमान के आधार पर मरुस्थल को गर्म मरुभूमि एवं ठंडी मरुभूमि में विभाजित किया जाता है, अधिकतर मरुस्थलीय भूमि उत्तरी व दक्षिणी गोलार्द्ध के उष्ण-कटिबंधीय कर्क रेखा व मकर रेखा के पास महाद्वीपों के पश्चिमी तट पर 15० – 35० अक्षांश तक पाएँ जाते है। मरुस्थल पृथ्बी का लगभग 1/7 भाग घेरे हुए है ।

मरुस्थलीय पौधों को उनकी विशेषता के आधार पर निम्न भागो में विभाजित किया जा सकता है —

  • पत्तियां बहुत छोटी व नुकीली होती है ।
  • ये पौधें अधिकतर झाड़ियों के रूप में होते है ।
  • पत्तियां व तने गूदेदार होते है जो जल को संचित रखते है।
  • कुछ पौधों के तनों में प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया के लिए क्लोरोफिल पाया जाता है ।
  • पादप प्रजातियों में नागफनी, बबूल, आदि के वृक्ष पाएँ जाते है ।

मरुस्थलीय जंतुओ की विशेषताएं

  • यह तेज़ दौड़ने वाले जीव पाएँ जाते है ।
  • ये जीव स्वाभाव से रात्रिचर होते है ।
  • जंतु व पक्षी सामान्यत: लंबी टांगो वाले होते है, जिससे उनका शरीर गर्म धरातल से दूर रह सके ।
  • शाकाहारी जंतु उन बीजों से पर्याप्त मात्रा में जल ग्रहण कर लेते है जिन्हें वे खाते है ।

घास पारिस्थितिकी तंत्र :-

  • घास पारितंत्र में वृक्षहीन शाकीय पौधों के आवरण रहते है, जो कि विस्तृत प्रकार की घास प्रजाति द्वारा प्रभावित रहते है ।
  • इन क्षेत्रों में कम वार्षिक वार्षिक वर्षा होती है, जो कि 25-75 cm के मध्य रहती है।
  • वाष्पीकरण की दर उच्च होने के कारण इन क्षेत्रों की भूमि शुष्क हो जाती है ।
  • मृदा की आंतरिक उर्वरता के कारण विश्व के ज्यादातर प्राकृतिक घासस्थल कृषि क्षेत्र में परिवर्तित कर दिए गए है ।
क्र. सं.घास का मैदानसंबंधित देश / क्षेत्र
1.लानोसवेनेजुएला
2.कैटिंगा, सेराडो, कैम्पोसब्राजील
3.पंपासअर्जेंटीना
4.सवानापूर्वी और मध्य अफ्रीका
5.वेल्डदक्षिण अफ्रीका
6.डाउन्सऑस्ट्रेलिया
7.कैंटरबरीन्यूजीलैंड
8.प्रेयरीअमेरिका
9.पुस्ताजहंगरी
10.स्टेपीयूरोप और एशिया
11.सेल्वासभूमध्य रेखीय दक्षिण अमेरिका

जलीय पारिस्थितिकी तंत्र :-

जल में निवास करने वाले जीव जंतु और पर्यावरण से परस्पर निर्भरता और उसके प्रभाव का अध्ययन ही जल का परिस्थिक तंत्र है। समुद्र, तालाब, नदी में जलीय जीव निवास करते है इन जीवो जन्म से मृत्यु तक के अध्ययन को पारिस्थितिक तंत्र के अंतर्गत रखा गया है।

घटक :-

1. अजैविक घटक :-

तालाब के पानी में कार्बन डाइऑक्साइड, ऑक्सीजन तथा अन्य गैसें व अकार्बनिक तत्व घुले रहते हैं। कुछ अजैविक घटक तालाब के निचले स्तर में पाये जाते हैं। ये सूर्य की ऊर्जा द्वारा कार्बन डाइऑक्साइड, जल तथा अजैविक घटकों की उपस्थिति में हरे जलीय पौधे प्रकाश संश्लेषण द्वारा भोजन का निर्माण करते हैं।

जो विभिन्न जिवो के लिए खाना और घर होता है। इन पौधो व जीवों की मृत्यु के पश्चात जलीय पदार्थ विघटित होकर अजैविक घतको के रूप में पुनः पानी में मिल जाता है और यह पारिस्थितिक तन्त्र बराबर चलता रहता है।

2. जैविक घटक

इसके अंतर्गत सभी जीव, जैसे – उत्पादक  उपभोक्ता  तथा अपघटनकर्ता आते हैं। जिनका वर्णन निम्न प्रकार है –

(1) उत्पादक – तालाब के पारिस्थितिक तन्त्र के प्राथमिक उत्पादक जलीय पौधे होते हैं।

    पादप प्लवक – ये हरे रंग के तैरने वाले शैवाल हैं। ये अति सूक्ष्म होते हैं। जल में प्रकाश की किरने जहां तक पहुंच पाती है वहां तक इनकी संख्या काफी अधिक होती है। उदाहरण- माइक्रोसिस्टिस, युग्लीना, वालवॉक्स, ऐनाबीना।

    रेशेदार शैवाल – ये पानी में तैरते हुए तथा किनारों की ओर घना जाल बनाते हैं हुए तालाबों में पाये जाते हैं। उदाहरण – ऊड़ोगोनियम, स्पाइरोगाइरा, कारा।

    निमग्न पादप – ये पौधे जड़ों द्वारा तालाब की जमीन से लगे होते हैं। उदाहरण- हाईड्रिला, वेलिसनेरिया।

    निर्गत पादप  – इस पादप की जड़ें पानी की जड़ें पानी के अंदर तथा शेष भाग  पानी के ऊपर निकला होता है।  उदाहरण – रीड।

    सतह पर तैरने वाले पादप  – ये पौधे पानी की सतह के ऊपर तैरते रहते हैं। उदाहरण- पिस्टिया

(2) उपभोक्ता :-

प्राथमिक उपभोक्ता – यह पादपों को खाते हैं इन्हे अग्र वर्गों में बांटा जाता है –

1. प्राणी प्लवक, ये तालाब के अंदर लहरों के साथ तैरते रहते हैं। उदाहरण- साइकलोप्स, डैफनीया ,कोपीपोड और रोटिफर।

2. तरणक – ये अपने चलन अंग की सहायता से तैरते हैं।

3.नितलक – तालाब के तल पर रहने वाले हैं।

द्वितीयक तथा तृतीयक उपभोक्ता – ये शाकाहारी जलीय जन्तु का भक्षण करते हैं। उदाहरण- मछली,मेढक,पानी का सांप।

सर्वोच्च उपभोक्ता – ये द्वितीयक तथा तृतीयक उपभोक्ता का भक्षण करते हैं।

उदाहरण- बड़ी मछली,बगुला,कछुआ।

अपघटक – जलीय पौधे तथा जन्तुओं के मरने के पश्चात अनेक सूक्ष्म जीवी (Microorganism) उनके कार्बनिक पदार्थों को साधारण तत्वों में बदल देते हैं। ये मुक्त तत्व पौधों के द्वारा उपयोग में पुनः ले लिये जाते हैं।

समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र :-

समुद्र में कई प्रकार के जिव पाए जाते है। और पृथ्वी का सबसे बड़ा जिव व्हेल भी समुद्र में पाए जाते है। पृथ्वी का 70 % भाग जल से भरा हुआ है। यह उच्च लवण होता है। और लाखो किस्म के जीव होते है। ये सभी एक दूसरे पर निर्भर करते है। और आपस में समुद्री चक्र का निर्माण करते है। यही समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र है।

तालाब का पारिस्थितिकी तंत्र :-

तालाब में पाए जाने वाले जीवो की निर्भरता और पर्यवरण पर प्रभाव को तालाब की परिस्थिक तंत्र कहा जाता है। छोटे जिव से लेकर बड़े जिव तालाब में एक दूसरे पर निर्भर होते है। उत्पादक उपभोक्त और उपघातक के रूप में रहते है। जैसे बड़े मछली छोटे मछली को खाते है। छोटे मछली लार्वा को अपना खाना बनाते है। इसी प्रकार सभी जीव एक दूसरे पर निर्भर होते है। 

पारिस्थितिक पिरामिड :-

  • पारिस्थितिक पिरामिड विभिन्न सजीवों के मध्य उनकी पारिस्थितिक स्थिति के आधार पर संबंधों को चित्रित करने हेतु एक आलेखीय प्रतिनिधित्व है।
  • पारिस्थितिक पिरामिड में विशिष्ट पोषी स्तरों को प्रदर्शित करने वाली अनेक क्षैतिज रेखाएं होती हैं।
  • यह चार्ल्स एल्टन, जी. एवलिन हचिंसन एवं रेमंड लिंडमैन जैसे प्रसिद्ध वैज्ञानिकों के कारण अस्तित्व में आया।

पारिस्थितिकी पिरामिड तीन प्रकार के होते हैं

  1. जीव संख्या का पिरामिड
  2. जैव मात्रा( भार) पिरामिड
  3. ऊर्जा का पिरामिड

जीव संख्या का पिरामिड :-

  • संख्याओं का पिरामिड प्रत्येक पोषी स्तर में उपस्थित विभिन्न प्रजातियों के व्यष्टियों की कुल संख्या का प्रतिनिधित्व करता है।
  • “संख्याओं का पिरामिड” शब्द 1972 में चार्ल्स एल्टन द्वारा निरूपित किया गया था।
  • संख्याओं का पिरामिड आकार के आधार पर सीधा एवं उल्टा दोनों हो सकता है।
  • संख्याओं के पिरामिड की एक बड़ी कमी यह है कि सभी जीवों की संख्या की गणना करना अत्यंत कठिन है।
  • इस कारण से, संख्याओं का पिरामिड पारिस्थितिकी तंत्र की पोषी संरचना की सही तस्वीर का प्रतिनिधित्व नहीं करता है।

संख्याओं का सीधा पिरामिड :-

    इस प्रकार के पिरामिड में व्यष्टियों की संख्या निम्न स्तर से उच्च पोषी स्तर तक घटती जाती है।

    उदाहरण: घास भूमि पारिस्थितिकी तंत्र एवं तालाब पारिस्थितिकी तंत्र

    पोषी संरचना:-  घास-टिड्डा-चूहे-सांप-बाज।

संख्याओं का उल्टा पिरामिड

    इस प्रकार के पिरामिड में व्यष्टियों की संख्या निचले स्तर से उच्च पोषी स्तर तक बढ़ जाती है।

    उदाहरण: वृक्ष पारिस्थितिकी तंत्र।

जैव मात्रा अथवा जैव भार का पिरामिड:-

  • बायोमास का पिरामिड एक विशिष्ट पोषी स्तर में जीवों की कुल द्रव्यमान को इंगित करता है।
    • बायोमास एक जीव या एक विशेष पोषी स्तर पर  अनेक जीवो में उपस्थित जैव सामग्री की प्रति इकाई क्षेत्र उत्पाद की मात्रा है।
    • एक निश्चित पोषी स्तर पर बायोमास की गणना पोषी स्तर के भीतर व्यक्तियों की संख्या को किसी विशेष क्षेत्र में किसी जीव के औसत द्रव्यमान से गुणा करके की जाती है।
  • यह पिरामिड संख्याओं के पिरामिड में आकार के अंतर की समस्या को दूर करता है क्योंकि एक पोषी स्तर पर सभी प्रकार के जीवों का वजन होता है।
  • प्रत्येक पोषी स्तर में एक निश्चित अवधि में जीवित सामग्री का एक निश्चित द्रव्यमान होता है जिसे खड़ी फसल कहा जाता है।
  • बायोमास सदैव पोषी स्तर में वृद्धि के साथ कम हो जाता है एवं बायोमास का लगभग 10% से 20% एक पोषी स्तर से दूसरे पोषी स्तर में स्थानांतरित हो जाता है।

बायोमास का सीधा पिरामिड  :-

  • बायोमास के सीधे पिरामिड का एक विस्तृत आधार होता है जिसमें मुख्य रूप से प्राथमिक उपभोक्ता होते हैं, छोटे पोषी स्तर शीर्ष पर स्थित होते हैं।
  • उत्पादकों (स्वपोषी) का बायोमास अधिकतम होता है। इसलिए इन्हें सबसे नीचे रखा जाता है। अगले पोषी स्तर अर्थात प्राथमिक उपभोक्ताओं का बायोमास उत्पादकों से कम होता है। अतः उन्हें स्वपोषी से ऊपर रखा जाता है। अगले उच्च पोषी स्तर अर्थात द्वितीयक उपभोक्ताओं का बायोमास प्राथमिक उपभोक्ताओं की तुलना में कम होता है। शीर्ष, उच्च पोषी स्तर में बायोमास की मात्रा बहुत कम होती है। इसलिए उन्हें सबसे ऊपर रखा गया है।

    उदाहरण: स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र।

बायोमास का उल्टा पिरामिड :-

    बायोमास के एक व्युत्क्रमित पिरामिड में, पिरामिड का एक छोटा आधार होता है, जिसमें उपभोक्ता बायोमास, उत्पादक बायोमास की तुलना में अधिक होता है एवं पिरामिड एक उल्टा आकार ग्रहण करता है।

    उदाहरण: जलीय पारिस्थितिकी तंत्र।

    ऐसा इसलिए है क्योंकि उत्पादक छोटे पादप प्लवक (फाइटोप्लांकटन) होते हैं जो तेजी से बढ़ते एवं प्रजनन करते हैं।

ऊर्जा का पिरामिड :-

  • पारिस्थितिक तंत्र के पोषी स्तरों की कार्यात्मक भूमिकाओं की तुलना करने के लिए ऊर्जा पिरामिड सर्वाधिक उपयुक्त होते हैं।
  • एक ऊर्जा पिरामिड प्रत्येक पोषी स्तर पर ऊर्जा की मात्रा एवं एक पोषी स्तर से अगले पोषी स्तर तक ऊर्जा की हानि को प्रदर्शित करता है।
  • ऊर्जा का पिरामिड सदैव एक सीधा पिरामिड होता है क्योंकि यह उत्पादकों से उपभोक्ताओं तक ऊर्जा के प्रवाह को दर्शाता है।
  • ऊर्जा का पिरामिड ऊर्जा हस्तांतरण में विभिन्न जीवों द्वारा निभाई गई वास्तविक भूमिका को इंगित करता है।
  • ऊर्जा प्रवाह के प्रतिरूप को ऊष्मागतिकी (थर्मोडायनेमिक्स) के नियम के आधार पर वर्णित किया जा सकता है जिसमें कहा गया है कि ऊर्जा न तो निर्मित की जाती है एवं न ही नष्ट होती है, यह केवल एक रूप से दूसरे रूप में रूपांतरित होती है।

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