हुमायूँ (1530-1556ई.)-
- मुग़ल काल हुमायूँ बाबर के चार पुत्रों ( हुमायूँ, कामरान, अस्करी और हिन्दाल ) में हुमायूँ सूबसे बङा था। मुग़ल काल हुमायूँ
- बाबर की मृत्यु के 4 दिन पश्चात् हुमायूँ 23 वर्ष की आयु में 30 दिसंबर, 1530 को हिन्दुस्तान के सिंहासन पर बैठा।
- हुमायूँ मुगल शासकों में एकमात्र शासक था, जिसने अपने भाइयों में साम्राज्य का विभाजन किया था। जो उसकी असफलता का बहुत बङा कारण बना।
- हुमायूँ ने अपने पिता के आदेश के अनुसार कामरान को काबुल एवं कंधार, अस्करी को संभल तथा हिन्दाल को अलवर की जागीर दी।
- इसके अलावा अपने चचेरे भाई सुलेमान मिर्जा को बदख्शाँ की जागीर दी। मुग़ल काल हुमायूँ
अफगानों से लङाई–
- हुमायूँ की सबसे बङी कठिनाई उसके अफगान शत्रु थे, जो मुगलों को भारत से बाहर खदेङने के लिए लगातार प्रयत्नशील थे। हुमायूँ का समकालीन अफगान नेता शेरखाँ था, जो इतिहास में शेरशाह सूरी के नाम से विख्यात हुआ। हुमायूँ के राजत्व काल में उसका अफगानों से पहला मुकाबला 1532ई. में दोहरिया नामक स्थान पर हुआ। अफगानों का नेतृत्व महमूद लोदी ने किया। परंतु अफगानों की पराजय हुई।
चुनार का प्रथम घेराव :-
1532ई. में जब हुमायूँ ने पहली बार चुनार का घेरा डाला । उस समय यह किला अफगान नायक शेरखाँ के अधीन था। शेरखाँ ने हुमायूँ की अधीनता स्वीकार ली तथा अपने बेटे कुतुब खाँ के साथ एक अफगान सैनिक टुकङी मुगलों की सेवा में भेज दी।
मालवा अभियान :-
1532ई. में बहादुर शाह ने रायसीन के महत्वपूर्ण किले को जीत लिया एवं 1533ई. में मेवाङ को संधि करने के लिए विवश किया।बहादुरशाह ने टर्की के प्रसिद्ध तोपची रूमी खाँ की सहायता से एक अच्छा तोपखाना तैयार कर लिया था। हुमायूँ ने 1535-36ई. में बहादुर शाह पर आक्रमण कर दिया। बहादुरशाह पराजित हुआ। हुमायूँ ने माण्डू और चंपानेर के किलों को जीत लिया। मुग़ल काल हुमायूँ
चौसा का युद्ध :-
1534ई. में शेरशाह की सूरजगढ विजय तथा 1536ई. में पुनः बंगाल को जीतकर बंगाल के शासक से 13 लाख दीनार लेने से शेरखाँ के शक्ति और सम्मान में बहुत अधिक वृद्धि हुई। फलस्वरूप शेरखाँ को दबाने के लिए हुमायूँ ने चुनारगढ का 1538ई. में दूसरा घेरा डाला और किले पर अधिकार कर लिया।15अगस्त 1538ई. को जब हुमायूँ गौङ पहुँचा तो उसे वहाँ चारों ओर लाशों के ढेर तथा उजाङ दिखाई दिया। हुमायूँ ने इस स्थान का नाम जन्नताबाद रख दिया। बंगाल से लौटते समय हुमायूँ एवं शेरखाँ के बीच बक्सर के निकट चौसा नामक स्थान पर 29 जून1539 को युद्ध हुआ जिसमें हुमायूँ की बुरी तरह पराजय हुई।
हुमायूँ अपने घोङे सहित गंगा नदी में कूद गया और एक भिश्ती की सहायता से अपनी जान बचायी। हुमायूँ ने इस उपकार के बदले उसे भिश्ती को एक दिन का बादशाह बना दिया था। इस विजय के पलस्वरूप शेरखाँ ने शेरशाह की उपाधि धारण की। तथा अपने नाम का खुतबा पढवाने और सिक्का ढलवाने का आदेश दिया।
बिलग्राम का युद्ध :-
17मई1540ई. में कन्नौज ( बिलग्राम ) के युद्ध में हुमायूँ पुनः परास्त हो गया
यह युद्ध बहुत निर्णायक युद्ध था।
कन्नौज के युद्ध के बाद हिन्दुस्तान की सत्ता एक बार फिर अफगानों के हाथ में आ गयी।
अपने निर्वासन काल के ही दौरान हुमायूँ ने हिन्दाल के आध्यात्मिक गुरू मीर अली की पुत्री हमीदाबानों बेगम से 29अगस्त 1541ई. में विवाह किया कालांतर में इसी से अकबर का जन्म हुआ।
हुमायूँ द्वारा पुनः राज्य प्राप्ति –
- 1545ई. में हुमायूँ ने काबुल और कंधार पर अधिकार कर लिया।
- हिन्दुस्तान पर पुनः अधिकार करने के लिए हुमायूँ 4 दिसंबर 1554 ई. को पेशावर पहुँचा।
- फरवरी 1555 ई. में लाहौर पर अधिकार कर लिया।
सरहिन्द का युद्ध :-
- 15मई 1555 ई. को ही मुगलों और अफगानों के बीच सरहिन्द नामक स्थान पर युद्ध हुआ। इस युद्ध में अफगान सेना का नेतृत्व सिकंदर सूर तथा मुगल सेना का नेतृत्व बैरम खाँ ने किया । अफगान बुरी तरह पराजित हुए। सरहिन्द के युद्ध में मुगलों की विजय ने उन्हें भारत का राज सिंहासन एक बार फिर से प्रदान कर दिया। इस प्रकार 23 जुलाई 1555 ई. हुमायूँ एक बार फिर से दिल्ली के तख्त पर बैठा। बैरम खाँ का योग्य एवं वपादार सेनापति था, जिसने विर्वासन तथा पुनः राजसिंहासन प्राप्त करने में बङी मदद की थी।
मृत्यु :-
किन्तु वह बहुत दिनों तक जीवित नहीं रह सका।
दुर्भाग्य से एक दिन जब वह दिल्ली में
दीनपनाह भवन में स्थित पुस्तकालय की सीढियों से उतर रहा ता वह गिरकर मर गया।
और इस प्रकार वह जनवरी 1556ई. में इस संसार से विदा हो गया।
लेनपूल ने हुमायूँ पर टिप्पणी करते हुए कहा -“हुमायूँ जीवनभर लङखङाता रहा और लङखङातें हुए अपनी जान दे दी।”
हुमायूँ एक अंधविश्वासी :–
- हुमायूँ ज्योतिष में अत्यधिक विश्वास करता था।
- इसलिए वह सप्ताह में सातों दिन सात रंग के कपङे पहनता था।
- मुख्यतः वह इतवार को पीले, शनिवार को काले एवं सोमवार को सफेद रंग के कपङे पहनता था।
- हुमायूँ अफीम का बहुत शौकीन था।
- हुमायूँ को अबुल फजल ने इन्सान–ए–कामिल कहकर सम्बोधित किया है।