मुगलकालीन प्रशासन

मुगलकालीन प्रशासन

मुगलों की प्रशासनिक व्यवस्थाः केन्द्रीय शासन

मुगलों का राजत्व सिद्धांत-

  • मुगलों के राजस्व सिद्धांत का मूलाधार शरिअत (कुरान एवं हदीस का सम्मलित नाम) था।
    • अबुल फजल ने जिस राजत्व सिद्धांत का समर्थन किया है उसके अनुसार- बादशाह ईश्वर का प्रतिनिधि तथा पृथ्वी पर ईश्वर का दूत होता है और ईश्वर ने उसे साधारण मानव की अपेक्षा अधिक बुद्धि और विवेक प्रदान किया है।

मुगल प्रशासन का स्वरूप (केन्द्रीय शासन)-

  • मुगल शासन सैन्य शक्ति पर आधारित एक केन्द्रीय व्यवस्था थी, जो नियंत्रण एवं संतुलन पर आधारित थी।
    • मुगल प्रशासन भारतीय तथा गैर – भारतीय (विदेशी) तत्वों का सम्मिश्रण था। दूसरे शब्दों में कहें तो यह भारतीय पृष्ठभूमि में अरबी -फारसी पद्धति थी।
    • मंत्रिपरिषद के लिए विजारत शब्द का प्रयोग किया गया है।
    • अकबर के काल में केवल चार ही मंत्रिपरिषद थे- वकील,दीवान( अथवा वजीर) मीर बख्शी एवं सद्र।

अन्य उच्च अधिकारी :-

मुहतसिब (सार्वजनिक आचार नियंत्रक) प्रजा के नैतिक चरित्र की देखभाल करने के लिए औरंगजेब ने मुहतसिबों की नियुक्ति की थी।

मुख्यकाजी (काजी-उल-कुजात)- मुगल बादशाह सभी मुकदमों का निर्णय स्वयं नहीं कर सकते थे इसलिए उन्होंने राजधानी में एक मुख्य काजी ( मुख्य न्यायाधीश ) नियुक्त किया, जो मुस्लिम कानून के अनुसार न्याय करता था।

मुगलकालीन प्रांतीय शासन व्यवस्था  :-

मुगलों का प्रांतीय शासन केन्द्रीय शासन का ही प्रतिरूप था। किन्तु अबुल फजल ने अपने आइने-अकबरी में केवल 12सूबों का ही वर्णन किया है।

मुगलकालीन सूबों की संख्या-

अकबर- आइने अकबरी के अनुसार  अकबर के समय सूबों की संख्या 12 थी।

वैसे अकबर के समय कुल सूबे 15 थे।

12पुराने सूबों में 3 नवीन सूबे जुङे जिनके नाम ये हैं- बरार,खानदेश एवं अहदनगर

जहाँगीर- 15सूबे (कांगङा को जीतकर लाहौर सूबे में मिलाया,

जो पहले से ही एक सूबा था इस प्रकार इनकी संख्या पूर्ववत् 15 रही।)

शाहजहां- इसके समय में 18 सूबे थे।

3 सूबे(कश्मीर,थट्टा और उङीसा)जो अकबर के समय में क्रमशःलाहौर,मुल्तान एवं बंगाल सूबों में सम्मिलित थे) को स्वतंत्र सूबा बनाया।

औरंगजेब-इसके समय में 20 अथवा 21 सूबे थे। इनके अलावा 2सूबे ( बीजापुर-1686 में बना तथा गोलकुंडा 1687 में बना)

सूबेदार- 

अकबर के काल में प्रांतीय प्रशासन के प्रमुख अधिकारी को सरकारी तौर पर सिपहसालार (गवर्नर) कहा जाता था, जिसे उसके उत्तराधिकारियों के समय में – नाजिम या सूबा-साहब कहा जाने लगा।परंतु जनसाधारण में वह सूबेदार, सूबा-साहब या केवल सूबा के नाम से जाना जाता था।

प्रांतीय दीवान- प्रांतीय दीवान(दीवाने सूबा) सूबे ( प्रांत) का वित्त अधिकारी होता था यद्यपि वह ओहदे में सूबेदार (गवर्नर) से नीचे होता था, किन्तु वह सूबेदार का मातहत नहीं होता था। वह सीधे शाही दीवान के प्रति उत्तरदायी होता था।

बख्शी- बख्शी की नियुक्ति केन्द्रीय मीर बख्शी के अनुरोध पर शाही दरबार द्वारा की जाती थी।

प्रांतीय सद्र- प्रांतीय सद्र एवं प्रांतीय काजी का पद कभी-2 एक ही व्यक्ति को दे दिया जाता था। अतएव सद्र की दृष्टि से वह प्रजा के नैतिक चरित्र एवं इस्लाम धर्म के कानूनों के पालन की व्यवस्था करता था और काजी की दृष्टि से न्याय करता था।

ग्राम प्रशासन मुगल शासक गांव को एक स्वायत्त-संस्था मानते थे जिसके प्रशासन का उत्तरदायित्व मुगलों अधिकारियों को नहीं दिया जाता था।बल्कि परंपरागत ग्राम पंचायतें ही अपने गांव की सुरक्षा -सफाई एवं शिक्षा आदि की देखभाल करती थी। गांव का मुख्य अधिकारी ग्राम प्रधान होता था जिसे खुत, मुकद्दम या चौधरी कहा जाता था। उसकी सहायता के लिए एक पटवारी होता था।

न्याय प्रणाली :-

         मुगल बादशाह स्वयं राज्य का सबसे बङा न्यायाधीश होता था।

बादशाह के बाद काजी मुख्य न्यायाधीश होता था।

उसकी सहायता के लिए मुफ्ती नियुक्त होते थे, जो कुरान के कानून की व्याख्या करते थे।

मुगल काल में जागीरदारी प्रथा         

जागीरदार वे मनसबदार होते थे,जिन्हें नकद वेतन के बदले

जमादामी (अानुमानित आय) के आधार पर कुछ राजस्व क्षेत्र दिये जाते थे। जिन्हें जागीर कहा जाता था।


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