वैदिक युग(ऋग्वैदिक काल)
वैदिक सभ्यता(1500 ई.पू.से 600ई.पू.)-
सिंधु सभ्यता के पतन के बाद भारत में एक बार फिर से ग्रामीण सभ्यता का उद्भव हुआ,
जिसके प्रर्वतक आर्य थे जिसे वैदिक सभ्यता नाम दिया गया ।
यह सभ्यता प्राचीन भारत की सभ्यता है। वैदिक काल 1500 ई.पू. से 600 ई.पू. तक रहा।
सामान्यत: यह माना जाता है कि जिन विदेशी आक्रांताओं ने हङप्पाई नगरों को नष्ट किया,
वे आर्य ही थे। ऋग्वेद में भी इस बात का उल्लेख किया गया है।
यहाँ आर्य शब्द का अर्थ श्रेष्ठ, उत्तम, अभिजात्य, उत्कृष्ठ, स्वतंत्र तथा कुलीन है।
वैदिक युग को दो भागों में बांटा गया है- 1.ऋग्वैदिक काल 2.उत्तरवैदिक काल
ऋग्वैदिक काल (1500-1000 ई.पू.)-
वैदिक काल का इतिहास हमें पूरी तरह से ऋग्वेद से ही ज्ञात होता है। ऋग्वेद , एक ऐसे समाज का चित्र प्रस्तुत करता है जो प्राक हङप्पा चरण में था । यह काल PGW संस्कृति के समकालीन था । यह ग्रामीण संस्कृति है । ऋग्वेद के काल निर्धारण में विद्वानों में मतभेद हैं। सबसे पहले मैक्समूलर ने वेदों के काल निर्धारण का प्रयास किया था। ऋग्वैदिक काल में कर्मकांड नहीं थे जबकि उत्तरवैदिक काल में हिन्दू धर्म में कर्मकांडों की अनुशंसा बढ गई थी। आर्यों की भाषा संस्कृत थी।
मैक्समूलर के अनुसार आर्यों का मूल निवास स्थान मध्य एशिया था।
आर्यों द्वारा स्थापित सभ्यता वैदिक सभ्यता थी तथा इस सभ्यता को ग्रामीण संस्कृति भी कहा गया है।
ऋग्वैदिक काल की जानकारी के स्रोत –
पुरातात्विक स्रोत
साहित्यिक स्रोत
पुरातात्विक स्रोत–
भगवानपुरा से 13 कमरों के एक मकान का अवशेष मिला है।
पंजाब के कुछ स्थलों – नागर, कटपालन, दधेरी से भी वैदिक काल के अवशेष मिले हैं।
बोगजकोई अभिलेख(1400ई.पू.)/ मितनी अभिलेख -यह अभिलेख सीरिया से प्राप्त हुआ है। इस अभिलेख में हित्ती राजा सुब्बिलिम्मा और मितन्नी राजा मतिऊअजा के बीच एक संधि में 4 वैदिक देवताओं को साक्षी माना गया है- इंद्र, मित्र, वरुण, नासत्य(अश्विन), (इन वैदिक देवताओं का क्रम इसी प्रकार से बोगजकोई अभिलेख पर है।)
कस्सी अभिलेख(1600ई.पू.)- यह अभिलेख ईराक से मिला है। इस अभिलेख में आर्यों की एक शाखा ईरान आई जबकि एक शाखा भारत की ओर बढी।
साहित्यिक स्रोत–
ऋग्वेद– इस काल में केवल ऋग्वेद की ही रचना की गई थी ।
1.भौगोलिक स्थिति–
ऋग्वेद में आर्यों के निवास स्थल के लिए “सप्त सैंधवतः” शब्द का उल्लेख किया गया है।
सप्त सैंधव प्रदेश में 7 नदीयों का संगम था । जहाँ आर्य सबसे पहले आकर बसे थे।
सात नदीयों के नाम इस प्रकार हैं- सिंधु, सरस्वती, वितस्ता(झेलम), अस्किनी(चिनाब)(चंद्रभागा), परुष्णी(इरावदी/रावी), शतुद्री(सतलज), विपासा(व्यास)।
ब्रह्मावर्त क्षेत्र- सतलज नदी से लेकर यमुना नदी का क्षेत्र था ।
यह क्षेत्र प्राचीन भारत का महत्वपूर्ण क्षेत्र था। यह ऋग्वैदिक काल का केन्द्रीय स्थल था।
ब्रह्मर्षि देश– गंगा -यमुना का दोआब ।
भरत जन सरस्वती तथा यमुना नदी के बीच के क्षेत्र में निवास करता था।
सरस्वती नदी–
सरस्वती नदी सबसे पवित्र नदी मानी गई है। इसके तट पर वैदिक मंत्रों की रचना की गई थी। इसे नदियों में अग्रवर्ती,नदीयों की माता, वाणी,बुद्धि तथा संगीत की देवी कहा गया है। इस नदी को नदीत्तमा भी कहा जाता है। यह नदी ऐसी अदभुत नदी है जो एक स्थान पर दिखती है, तो दूसरे स्थान पर अदृश्य हो जाती है।
सिंधु नदी–
ऋग्वेद की दूसरी प्रमुख नदी थी। इसके अन्य नाम भी हैं जैसे-सुषोमा(सुषोम पर्वत से निकलती है), हिरण्ययनी(इस नदी व्यापारिक गतिविधियाँ होती थी।),ऊर्णावती (इसके माध्यम से ऊन का व्यापार होता था।)
ऋग्वेद में उल्लेखित अन्य नदीयों के नाम- दृष्द्वती, अपाया, यमुना(3बार उल्लेख),गंगा(1 बार उल्लेख), सरयु,राका, रांसी, अनुमति,अशुनिति।
राजनितिक व्यवस्था–
भारत में आर्य अलग-अलग कबीलों (जन) के रूप में आये थे। आर्य कोई जाति या नस्ल नहीं, बल्कि भाषाई/सांस्कृतिक समूह थे। भारत में आने पर इनका 2 तरह से संघर्ष हुआ।
आर्य-अनार्य संघर्ष(दशराज युद्ध)
आर्य-आर्य संघर्ष (दास राज युद्ध)
भरत कबीला त्रित्सु से संबंधित था। पंचजन(यदु,अनु,पुरु,द्रुहु,तुर्वस)।
आर्यों का जीवन प्रारंभ में अस्थायी था। क्योंकि ये लोग कबीले से संबंधित थे,पशुचारण इनका मुख्य पेशा था। कृषि द्वितीयक या गौण पेशा था। इसे हीन कर्म माना जाता था।भूमि को आर्य अपनी संपत्ति नहीं मानते थे, पशुओं को वे अपनी संपत्ति मानते थे।
प्रशासन की सबसे छोटी इकाई कुल/परिवार थी।कुल / परिवार का मुखिया कुलप /कुलपति कहलाता था। बहुत सारे परिवार मिलकर ग्राम बनता था ग्राम का मुखिया ग्रामणी कहलाता था। ऋग्वेद में ग्रामणी शब्द का 30 बार उल्लेख हुआ है। कई ग्राम मिलकर विश बनाते थे तथा विश का मुखिया विशपति कहलाता था। जन जिसे कबीला भी कहा जाता था का मुखिया जनस्य गोपा (राजा) होता था , जनस्य गोपा का ऋग्वेद में 275 बार उल्लेख हुआ है। राजा का पद युद्ध की आवश्यकता के अनुकूल होता था। उसका कोई धार्मिक कार्य /अधिकार नहीं होता था।राजा कबीले का संरक्षक होता था।
बलिः दैनिक उपभोग की वस्तुयें , दूध,दही,फल,फूल,अनाज,दालें,ऊन आदि पर दिया जाने वाला कर।
सामाजिक व्यवस्था–
ऋग्वैदिक कालीन समाज कबीलाई समाज था।समाज पुरुष प्रधान था। (पितृसत्तात्मक)पशुपालन पर आधारित अस्थाई समाज था। पुरुष प्रधान समाज होने के कारण पशुपालन तथा युद्ध की आवश्यकता के अनुकूल समाज था। महिलाओं की स्थिती भी अच्छी थी। समाज में बाल विवाह, सतीप्रथा, विधवा व्यवस्था, प्रदापर्था, जौहर प्रथा, आदि कुरीतियों का प्रचलन नहीं था।
नियोग प्रथा तथा पुरुषों में बहुविवाह का प्रचलन था। गाय को वैदिक समाज में महत्तव था इसलिए अधिकांश जीवन की घटनाएँ गाय के नाम से जुङी थी। जैसे – राजा को (गोपति, गोप्ता), धनीव्यक्ति को (द्रविण, श्वेवान), समय की माप (गोधूली बेला), दूरी की माप (गवयतू), पुत्री को(दुहिता), अतिथि को (गोहन), युद्ध को(गविष्टि/गेसू/गम्य/गत्य) आदि नाम गाय के नामों पर थे।
वर्णव्यवस्था की स्थापना इस काल के अंतिम चरण में हुई।
पहली बार 10 वें मंडल के पुरुष सूक्त में चारों वर्णों का नाम मिलता है। वैश्य तथा शूद्र दोनों का नाम ऋग्वेद में पहली बार मिलता है।
इस काल में वर्ण व्यवस्था कर्म पर आधारित थी।
ऋग्वैदिक काल की आर्थिक व्यवस्था :-
ऋग्वैदिक आर्य ग्रामीण संस्कृति से जुङे हुए थे। अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार पशुपालन था। गाय, घोङा पवित्र तथा महत्वपूर्ण पशु थे। बैल , भेङ, कुत्ता भी आर्य लोग पालते थे। ऊँट तथा हाथी से भी परिचित थे। व्याघ्र (बाघ) का उल्लेख ऋग्वेद में नहीं मिलता । सबसे महत्वपूर्ण गाय को माना जाता था। तथा दूसरे स्थान पर घोङा था।
कृषि द्वितीयक (गौण) पेशा मानी जाती थी। ऋग्वेद में कृषि को हीन कर्म बताया गया है। पूरे ऋग्वेद में केवल 24 श्लोक में ही कृषि का उल्लेख मिलता है तथा 33 बार कृषि श्ब्द मिलता है।
ऋग्वैदिक देवताओं से पशुओं की सुरक्षा हेतु प्रार्थनाएँ की गई थी।
कृषि में लकङी के हल,फॉल जैसे उपकरणों का प्रयोग किया गया था।
कृत्रिम सिंचाई का भी उल्लेख मिलता है। कृषि से संबंधित कई शब्द मिलते हैं-
अवल – कुइया ,कुल्ला= नहर ,पर्जन्य= बादल ,सीता- हल की रेखा।,उर्वर- जुता हुआ खेत।,यव- जौ – एकमात्र फसल जौ की ही होती थी ।,धान्य – अनाज ।,कीवाश- हलवाला।,करिषु – खाद ।
ऋग्वैदिक का की धार्मिक स्थिति :-
धार्मिक दशा– ऋग्वैदिक आर्यों का धर्म साधारण था। कर्म पर आधारित धार्मिक व्यवस्था थी अर्थात् जो जैसा कर्म करेगा उसे वैसा ही फल मिलेगा। साधारण तथा आडंबररहित / कर्मकांड रहित धर्म था। देवताओं का मानवीकरण किया गया था । प्रकृति का दैवीकरण। धर्म में पुरुष देवताओं की प्रधानता थी। यज्ञ का प्रचलन सिमित था। और उसमें कर्मकाण्ड एवं बलि का प्रचलन न के बराबर था। ऋग्वैदिक आर्यों की सोच उपयोगितावादी थी। इस काल की मुख्य उपासना पद्दती प्रार्थना थी।
व्यापार वाणिज्य–
वाणिज्य व्यापार से पणि नामक अनार्य जुङे हुए थे। जो अपनी स्मृद्धि के बावजूद कंजूसी के लिए प्रसिद्ध थे । इनका उल्लेख आर्यों के शत्रुओं के रूप में किया जाता था। क्योंकि ये लोग आर्यों की गायें चुराते थे। ऋग्वेद के अंतिम भाग में व्यापार वाणिज्य के लिए एक स्थाई वर्ण आ गया जो वैश्य कहलाया था। ऋग्वेद में वस्तुविनिमय प्रणाली प्रचलित थी। सामान्यतः इसके लिए गाय, निष्क(सोना), सोने के आभूषण । बेकनाट (सूदखोर ) वे ऋणदाता थे जो बहुत अधिक ब्याज लेते थे।