संगम काल का इतिहास
काल निर्धारण :-
संगम के काल निर्धारण को लेकर विद्वानों में मतभेद है।
- आ.सी. मजूमदार – प्रथम सदी से तीसरी शताब्दी तक
- एस. वैयपुरा पिल्लई – 300 ई.पू. से 500 ई. तक
- एन. सुब्राह्मन्यम – 300 ई.पू. से 300 ई. तक
- संगम साहित्य का सृजन काल 300 ई.पू. से 300 ई.पू. तक माना गया है।
संगमों का आयोजन :-
प्रथम संगम :-
स्थल: मदुरै, अध्यक्ष – अगत्तियार(अगस्त ऋषि)
सदस्यों की संख्या – 549, ग्रंथ – अगत्तियम
द्वितीय संगम :-
स्थल – कपाटपुरम/अलवै अध्यक्ष – अगत्तियार/तोलकाप्पियर
सदस्यों की संख्या – 49, ग्रंथ – तोलकाप्पियम
तृतीय संगम :-
स्थल – उत्तरी मदुरै अध्यक्ष – नककीरर
सदस्यों की संख्या – 49 ग्रंथ – पत्तुप्पात्रु, इत्तुतोगई एवं पदनेनकीलकणक्कु
संगमकालीन राजवंश :-
चेर राज्य :-
संगमकालीन राज्यों में यह सबसे प्राचीन माना जाता है। इसमें केरल एवं तमिलनाडु का हिस्सा सम्मिलित था। चेर राज्य की राजधानी कोरकई/वंजीपुर थी। चेर राज्य का प्रथम शासक उदयन जेराल था। चेर राज्य का प्रतीक चिन्ह – धनुष था। शेनंगुट्टवन ने सर्वप्रथम पत्नी पूजा प्रारंभ की। अदिग/ईमान या अदिगैमान अंजी ने सर्वप्रथम दक्षिण भारत में गन्ने की खेती की शुरूआत की। कुडक्को इंजेराल इरपोरई अंतिम चेर शासक था।
चोल राज्य :-
यह पेन्नार एवं वेल्लार नदी के मध्य स्थित था। इसकी राजधानी उत्तरी मनलूर/उरैयूर/कावेरीपतनम थी। चोल राज्य का प्रतीक चिन्ह बाघ था। चोल राजा एलारा ने श्रीलंका पर विजय प्राप्त की। करिकल – चोल राजाओं में सर्वाधिक महत्वपूर्ण । बेण्णि के युद्ध में चेर एवं पाण्ड्य सहित 11 राजाओं को हराया। वाहैप्परन्दलाई के युद्ध में 9 राजाओं को हराया। कावेरी नदी पर पुल बनवाया एवं राजधानी कावेरीपत्तनम स्थानान्तरित की। पेरूनरकिल्लि ने राजसूय यज्ञ किया।
पाण्ड्य वंश/राज्य :-
यह भारतीय प्रायद्वीप के दक्षिण पूर्व भाग में था। पाण्ड्य राज्य की राजधानी कोलकई/मदुरा थी। पाड्य राज्य का प्रतीक चिन्ह मछली था। पाण्ड्य राज्य का प्रथम-शासक पलशालइमुडुकुडुमी था। नल्लिवकोडन अंतिम पाण्ड्य शासक था।
तलैमालंगानम का युद्व :-
इस युद्ध में पाण्ड्य शासक नेडुजेलियन ने चोल व चेर सहित 7 मित्र सामंतों को हराया था।
महत्वपूर्ण तथ्य :-
संगम काल राजतंत्रात्मक था एवं राजा का पद वंशानुगत था। न्याय व्यवस्था का सर्वोच्च अधिकारी राजा होता था। समाज में वर्ण व्यवस्था का प्रभाव था। अर्थ व्यवस्था का मुख्य आधार कृषि एवं व्यापार थे। आन्तरिक व्यापार वस्तु विनिमय पर आधारित था। वैदिक धर्म की प्रधानता थी। गुरूगन स्वामी(सुब्राह्मण्यम) की पूजा प्रचलित थी। पशुबलि की प्रथा प्रचलित थी।
दक्षिण भारत का द्वितीय चरण :-
इस समय दक्षिण भारत में अनेक राज्यों का उदय हुआ। जैसे – पल्लव, चालुक्य, चोल। भूमि अनुदान की प्रचुरता में वृद्धि हुई। बोद्ध एवं जैन धर्म की तुलना में ब्राह्मण धर्म का प्रचार प्रसार हुआ। इस युग में दक्षिण भारत में अनेक मन्दिर बने। यह मन्दिरों का युग था।प्राकृत भाषा के स्थानीय एवं संस्कृत भाषा का प्रभाव बढ़ा।
पल्लव वंश :-
इस वंश का संस्थापक बप्पदेव था जो संभवतः सातवाहन शासकों के अधीन प्रांतीय शासक था तथा मौका पाकर एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की।
पल्लव वंश का वास्तविक संस्थापक सिंहविष्णु को माना जाता है। यह एक शक्तिशाली शासक था। इसने अवनिसिंह की उपाधि धारण की। नरसिंह वर्मन-1 ने महाबलिपुरम नगर बसाया था।
नरसिंह वर्मन-2(राजसिंह) :-
इसने कांची में कैलाश मंदिर एवं महाबलिपुरम के शोर मंदिर(तटीय मंदिर) का निर्माण करवाया। इसके दरबार में दण्डिन रहते थे। दण्डिने ने दशकुमार चरित एवं अवन्ती सुन्दरी की रचना की।
पल्लव वंश के राजाओं का क्रम :-
सिंहविष्णु, महेन्द्र वर्मन-1, नरसिंह वर्मन-1, महेन्द्र वर्मन-2, परमेश्वर वर्मन-1, नरसिंह वर्मन-2, परमेश्वर वर्मन-2, नंदिवर्मन-2, अपराजित पल्लव(अंतिम)
चालुक्य वंश :-
कुछ प्राचीन ग्रंथो में चालुक्य वंश की स्थापना जयसिंह द्वारा किया गया माना जाता है परन्तु इसका कोई प्रमाण नहीं है। अतः चालुक्य वंश की स्थापना का श्रेय पुलकेशिन-1 को प्राप्त है।
चालुक्य वंश कई शाखाओं में विभाजित था परन्तु चालुक्य वंश की मूल शाखा बातापी/बादामी की शाखा थी।
चालुक्य वंश के संस्थापक पुलकेशिन-1 वातापी(बादामी) को अपनी राजधानी बनाया।
चालुक्य वंश की शाखाएं :-
वातापी के चालुक्य :-
पुलकेशिन-1 :-
चालुक्य वंश का संस्थापक।(दो पुत्र: कीर्तिवर्मन-1 एवं मंगलेश) । अश्वमेध एवं वाजपेय यज्ञ करवाए।
कीर्तिवर्मन-1 :-
यह पुलकेशिन-1 का पुत्र एवं उत्तराधिाकरी था। इसकी मृत्यु के बाद इसका भाई मंगलेश शासक बना।
पुलकेशिन द्वितीय :-
चालुक्य वंश का सबसे प्रतापी शासक। सत्याश्रय श्री पृथ्वीवल्लभ महाराज की उपाधि धारण की। इसका दरबारी कवि रविकीर्ति था। इसने हर्षवर्धन(कन्नौज का सम्राट) को हराया था। इस विजय के पश्चात् पुलकेशिन-2 को परमेश्वर की उपाधि दी। इसने अपने भाई विष्णु वर्धन को बेंगी का राज्य सौपा इस प्रकार चालुक्य वंश की बैंगी शाखा का उदय हुआ।
विक्रमादित्य -1 :-
यह पुलकेशिन-2 का पुत्र था। इसके शासन में चोलों, पाण्ड्यों और केरलों ने स्वंय को स्वतंत्र घोषित कर दिया। विक्रमादित्य ने इन तीनों की शक्ति को समाप्त किया। विक्रमादित्य ने अपने छोटे भाई जयसिंहवर्मन को लाट का गवर्नर बनाया। इस प्रकार उसने यहां चालुक्य वंश की गुजरात शाखा की स्थापना की।
विक्रमादित्य -2 :-
विक्रमादित्य-2 ने चोलों, पांड्यों, केरलों एवं कलभ्रों को हराया था।
कीर्तिवर्मन-2 :-
इसने पल्लव शासकों को समाप्त किया। उपाधियां – सार्वभौम, लक्ष्मी, पृथ्वी का प्रिय, राजाओं का राजा। यह बादामी के चालुक्यों का अंतिम शासक था। चाल्युक्यों के सामन्त, राष्ट्रकूट दंतिदुर्ग ने कीर्तिवर्मन-2 को पराजित किया एवं चालुक्यों की बादामी शाखा का अंत हो गया।
चोल साम्राज्य :-
चोल साम्राज्य का संस्थापक विजयालय था। वैसे संगम काल में चोल वंश का संस्थापक एलनजेत चेन्नी(राजधानी-मनलूर) को माना जाता है। करिकाल ने राजधानी उरैयूर को बनाया था। विजयालय ने तंजावुर(तंजौर) को अपनी राजधानी बनाया। आदित्य-1 ने पाण्ड्य एवं पल्लव शासकों को हराकर कोण्डाराम की उपाधि ली।आदित्य-1 विजयालय का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था।
राजराजा प्रथम :- अन्य नाम – अरिमोली वर्मन
यह चोलों की महत्ता का वास्तविक संस्थापक था।
उपाधियां – जगन्नाथ, चोल मात्र्तण्ड, चोल नारायण, राजाश्रय आदि।
राजाराज-1 की विजय :-
केरल के चेर शासक भास्कर वर्मा को हराया। पाण्ड्य राजा अमर भुजंग को हराया। श्रीलंका के राजा महेन्द्र-5 को हराया। राजधानी अनुराधापुर को ध्वस्त किया एवं श्री लंका की नयी राजधानी “पोल्लोन्नरूप” को बनाया। श्री लंका विजय के उपलक्ष्य में जगन्नाथ की उपाधि ली। कलिंग क्षेत्र पर विजय प्राप्त की। तंजौर(तंजाबुर) मं वृहदेश्वर मंदिर/राजराजेश्वर मंदिर का निर्माण किया। चालुक्यों को हराकर चोलनारायण की उपाधि ली।