उत्तरवैदिक काल (1000-600 ई.पू.)
ऋग्वेद के बाद प्राचीन भारत में जिस काल का आगमन हुआ वह काल उत्तरवैदिक काल था।
इस काल की जानकारी पुरातात्विक तथा साहित्यिक स्रोतों से मिलती है।
पुरातात्विक स्रोत-
अतरंजीखेङा– सर्वप्रथम लौह उपकरण अतरंजीखेङा से ही प्राप्त हुए हैं तथा यहां से सर्वाधिक लौह उपकरण भी प्राप्त हुए हैं।
यहां से प्राप्त लौह उपकरण हमें उत्तरवैदिक काल की जानकारी प्रदान करते हैं।
साहित्यिक स्रोत-
सामवेद– इसमें ऋग्वैदिक मंत्रों को गाने योग्य बनाया गया है।
यजुर्वेद– इस वेद में यज्ञों की विधियों का वर्णन मिलता है, यह कर्मकांडीय ग्रंथ है।
अथर्ववेद – यह आर्य संस्कृति के साथ-साथ अनार्य संस्कृति से भी संबंधित है।
अतः इस वेद को पूर्व के तीन वेदों के समान महत्व प्राप्त नहीं है और इसे वेदत्रयी में शामिल नहीं किया गया है।
ब्राह्मण ग्रंथ – इनमें यज्ञों के आनुष्ठानिक महत्व का उल्लेख है।
यह कर्मकाण्डीय ग्रंथ हैं। चारों वेदों के अलग-अलग ब्राह्मण ग्रंथ हैं।
आरण्यक– इनकी रचना एकांत (अरण्य-जंगल)में हुई और इनका अध्ययन भी एकांत में किया गया ।
उपनिषद– उपनिषदों में ईश्वर तथा आत्मा के संबंधों की बात की गई है
जैसे-परमज्ञान, पराविधा, सर्वोच्च ज्ञान अर्थात इस लोक से बाहर की बात की गई है।
उपनिषद भारतीय दर्शन का मूल स्रोत है। उपनिषदों की रचना इस काल से ही शुरु हुई तथा मध्यकाल तक चली।
वेदत्रयी–
ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद। इन तीनों वेदों को मिलाकर वेदत्रयी कहा गया है।
भौगोलिक विस्तार –
इस काल में पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार तक आर्यों का विस्तार
(सदानीरा नदी से गंडक नदी तक विस्तार) तथा दक्षिण में विदर्भ ( MP) तक आर्यों का विस्तार।
अर्थव्यवस्था–
पशुपालन के साथ-साथ कृषि भी मुख्य पेशा बन गया । इस बात के कई साक्ष्य प्राप्त हुए हैं जैसे-शतपथ ब्राह्मण में कृषि से संबंधित समस्त क्रियाओं का वर्णन है – अथर्ववेद में बताया गया है कि सर्वप्रथम पृथ्वीवेन ने हल चलाया।
इस काल में अनाजों की संख्या में भी वृद्धि हुई । यव(जौ) के अलावा गोधूम(गेहूँ), ब्रीही/तुंदल (चावल), उङद, मसूर, तिल, गन्ना के भी साक्ष्य मिलते हैं। इंद्र को सुनासिर(हलवाहा) कहा गया है।
पशुपालन में हाथी पालन प्रारंभ हुआ और यह एक व्यवसाय बन गया। गर्दभ(गधा), सूकर(सूअर)पालन की भी शतपथ ब्राह्मण से जानकारी प्राप्त होती है। गर्दभ अश्विन देवताओं का वाहन था।
धार्मिक व्यवस्था-
इस काल में उपासना की पद्धति में यज्ञ एवं कर्मकांड प्रमुख हो गये । इस काल में भी आर्य भौतिक सुखों की कामना हेतु देवताओं से यज्ञ एवं प्रार्थनाएं करते थे। यज्ञों में बङी मात्रा में पशुबली दी जाने लगी। जिससे वैश्य वर्ण असंतुष्ट हुआ।
उद्योग–
कृषि के अलावा विभन्न प्रकार के शिल्पों का उदय भी हुआ। इन विभिन्न व्यवसायों के विवरण पुरुषमेध सूक्त में मिलते हैं। जिनमें धातु शोधक , रथकार , बढई , चर्मकार , स्वर्णकार , कुम्हार , व्यापारी आदि प्रमुख थे।
वस्त्र निर्माण , धातु के बर्तन , तथा शस्त्र निर्माण , बुनाई , नाई(वाप्ता) , रज्जुकार(रस्सी बनाने वाला)कर्मकार (लोहे के काम करने वाला), सूत (सारथी)। आदि प्रकार के छोटे-छोटे उद्योग प्रचलन में थे।
ब्राह्मण ग्रंथों में श्रेष्ठी का भी उल्लेख है। श्रेष्ठिन श्रेणी का प्रधान व्यापारी होता था। व्यापार पण द्वारा सम्पन्न होता था जिसमें लेन – देन का माध्यम गाय तथा निष्क का बनाया जाता था।शतमान चाँदी की मुद्रा थी। शतपथ ब्राह्मण में दक्षिणा के रूप में इसका वर्णन है। उत्तरवैदिक काल में मुद्रा का प्रचलन हो गया था फिर भी लेन देन तथा व्यापार वस्तु विनिमय द्वारा होता था।
सामाजिक स्थिति–
उत्तरवैदिक कालीन समाज चार वर्णों में वभक्त था-ब्राह्मण , क्षत्रिय, वैश्य , शूद्र। इस काल में यज्ञ का अनुष्ठान अधिक बढ गया था जिससे ब्राह्मणों की शक्ति में अत्यधिक वृद्धि हो गई थी। वर्ण व्यवस्था का आधार कर्म पर आधारित न होकर जाति पर आधारित हो गया तथा वर्णों में कठोरता आने लग गई थी।
16 संस्कार-
गर्भाधान , पुंसवन, जातकर्म, निष्क्रमण, अन्नप्राशन,चूङाकर्म, कर्णवेध, विद्यारंभ, उपनयन, केशांत/गोदान, समावर्तन, विवाह, अंतेष्टि।
आश्रम व्यवस्था-
ब्रह्मचर्य आश्रम
गृहस्थ आश्रम
वानप्रस्थ आश्रम।
संयास आश्रम पर अवैदिक परंपराओं (श्रमण परंपरा-जैन, बौद्ध धर्म का प्रभाव दिखाई देता है।) पहली बार जाबालोपनिषद में चारों आश्रमों का उल्लेख मिलता है।
विवाह व्यवस्था–
8 प्रकार के विवाह प्रचलित थे। नीचे लिखे प्रारंभ के 4 विवाह को धर्म द्वारा सहमति प्राप्त थी तथा नीचे के 4 विवाह को धर्म द्वारा सहमति नहीं थी।
ब्रह्म विवाह- पिता अपनी पुत्री के लिए योग्य वर की (वेदों का ज्ञाता हो) तलाश करता था-(वर्तमान विवाह प्रणाली)
दैव विवाह- यह ब्राह्मणों में प्रचलित था। कन्या का पिता यज्ञ का आयोजन कराता है तो जो युवक रीतिपूर्वक मत का संपादन करता उससे पुत्री का विवाह हो जाता था।
प्रजापत्य विवाह-आज के विवाह के समान था । कन्या का पिता वर को ढूँढ कर धार्मिक कर्तव्यों का निर्वहन करता है।(कन्यादान)
आर्ष विवाह- कन्या का पिता युवक से एक जोङी गाय-बैल की मांग करता है।
गंधर्व विवाह-वर तथा कन्या दोनों प्रेमासक्त होकर विवाह कर लेते हैं।
असुर विवाह-कन्या की बिक्री होती थी। -गरीब कन्या को खरीद कर विवाह करना।
राक्षस विवाह- बलपूर्वक कन्या का हरण कर विवाह किया जाता था। क्षत्रियों में इसे स्वीकार किया गया है।(पृथ्वीराज – संयोगिता का विवाह)
पैशाच विवाह- सबसे निकृष्ट विवाह- सोती हुई , मंद बुद्धि कन्या के साथ बलात्कार करना।
राजनीतिक स्थित :-
उत्तरवैदिक काल में राजा की शक्ति में वृद्धि हुई, क्योंकि अब लोहे का उपयोग युद्ध के रूप में होने लगा था। राजा की शक्ति में वृद्धि पता साहित्यों से भी चलता है। इस काल में राजा के साथ अनेक धार्मिक अनुष्ठान जुङ गए । उदा. के तौर पर – राज्यभिषेक संस्कार, अश्वमेघ यज्ञ, राजसूय यज्ञ। राजा अनेक उपाधियाँ लेने लगा जैसे – सम्राट, स्वराट, प्रकराट आदि । अधिकारियों की संख्या में बढोतरी (20) हो गई थी । इनमें से 12 स्थायी अधिकारी थे । विदथ का उल्लेख बहुत कम बार मिलता है(अथर्ववेद में 22 बार) । सभा और समिति का पहले की तुलना में महत्त्व बढा। यह राजा पर नियंत्रण का कार्य करती थी। अथर्ववेद में सभा का 7 बार तथा समिति का 13 बार प्रयोग किया गया है। इस काल में कर प्रणाली नियमित हुई।(स्थायी कर व्यवस्था)
बलि(दैनिक उपयोग की वस्तुएँ) नामक कर प्रणाली भी स्थाई हो गयी थी।
भाग, भोग, शुल्क नामक कर भी उत्पन्न हुये।
भाग– भूराजस्व कर
भोग– हमेशा दैनिक उपभोग की वस्तुएँ
शुल्क – व्यापारिक कर (चुंगी) ये सभी कर अनिवार्य थे।